लोग यहाँ मिलते हैं अंधे हैं बहरे हैं।
सोने की रोज-रोज उगती दीवारें हैं
दिखने को उथले, पर दंश बहुत गहरे हैं।
बगुलों की मौन-सधी हर क्षण ही घातें हैं संशय में बीत रहीं कैसी ये राते हैं !
सपनों पर विषदंती, साँपों के पहरे हैं।
हिंदी समय में रमेश चंद्र पंत की रचनाएँ